11 ता० को श्रावणी पूर्णिमा श्रवण नक्षत्र सहित रक्षाबन्धन: ज्यो.लोकेश कौशिक

ब्युरो, दैनिक हिमाचल न्यूज :- भद्रा सामान्यतः विष्टि करण को कहते हैं। जिन तिथियों के पूर्वार्द्ध अथवा उत्तरार्द्ध में विष्टि नामक करण विद्यमान हो, उस तिथि को ‘भद्राक्रांत’ तिथि कहा जाता है। अतः भद्रा की जानकारी मूलतः करण ज्ञान पर आधारित है। वैदिक काल के विकास में पंचांग निर्माण की प्रक्रिया पूर्व में एकांग ‘तिथि’ मात्र पर आधारित थी। नक्षत्र समावेश से यह ‘द्वयांग’ बना । क्रमशः धीरे-धीरे योग, करण, तथा वार को ग्रहण करके पंचांग की सार्थकता सिद्ध हुई। पंचांग के पांच अंगों की उपयोगितानुसार तिथियों के प्रयोग से व्रत, पर्व तथा अनुष्ठान द्वारा धन प्राप्ति एवं कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया गया। सप्त वारों में दैनिक कार्य-कलाप निवृत्ति से स्वास्थ्य और आयुष्य वृद्धि संभव हुई।

नक्षत्रानुसार सांस्कारिक परम्पराएं निभाने से पापों से निवृत्ति तथा विभिन्न योग-रोग निवारण की धारणा पुष्ट हुई। इसी प्रकार विभिन्न करणों का उचित प्रयोग कार्य-सिद्धिदायक कहा गया जो ‘करण’ शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति से भी प्रकट होता है। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि ये सात करण चर संज्ञक हैं अर्थात प्रत्येक माह में प्रत्येक की आठ आवृत्तियां पूर्ण होती हैं। इसके अतिरिक्त चार स्थिर करण भी हैं जो मास में केवल एक बार ही आते हैं। इनकी तिथियां और उनके भाग निश्चित (स्थिर) हैं। इनके नाम क्रमशः शकुनि, चतुष्पाद, नाग तथा किस्तुघ्न हैं। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के पश्चात भाग में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्द्ध में चतुष्पाद और उत्तरार्द्ध में नाग तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्द्ध में किस्तुघ्न नामक करण होता है। इस प्रकार कुल ग्यारह करण प्रचलित हैं। भद्रा की स्थिति: भद्रा की स्थिति के विषय शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्द्ध तथा एकादशी और चतुर्थी के उत्तरार्द्ध में भद्रा होती है।

इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के उत्तरार्द्ध में तथा सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में विष्टि करण (भद्रा) होता है। (ज्ञातव्य है कि इस सिद्धांत के विपरीत वेदांग कालीन तथा जैन ग्रंथों में करण पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध के स्थान पर दिन एवं रात्रि के आधार पर दिए गए हैं) भद्रा का स्वरूप: ‘मुहूत्र्त गणपति’ के अनुसार ‘‘पुरा देवासुरे युद्धे शंभु कायाद्विनिर्गता। दैत्यघ्नि रासभास्या च विष्टिर्लोगूलिनी क्रमात्। सिंह ग्रीवा शवारूढ़ा सप्तहस्ता कृशोदरी। अमरैः श्रवण प्रांते सा नियुक्ता शिवाज्ञयाः।। महोग्रया विकरालस्या पृथुदंष्ट्र भयानका। कार्याग्नि भुवमायाति वह्नि ज्वाला समाकुला।।’’ अर्थात पूर्वकाल में देव-दैत्यों के युद्ध में महादेव जी के शरीर से भद्रा उत्पन्न हुई। दैत्यों के संहार हेतु गर्दभ के मुख और लंबी पूंछ वाली यह भद्रा तीन पैरों वाली है। सिंह जैसी गर्दन, शव पर आरूढ़, सात हाथों तथा शुष्क उदर वाली, महाभयंकर, विकरालमुखी, पृथुदृष्टा तथा समस्त कार्यों को नष्ट करने वाली अग्नि ज्वाला युक्त यह भद्रा देवताओं की भेजी हुई प्रकट हुई है।

भद्रा का निवास: विभिन्न ग्रंथों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि विभिन्न राशियों में चंद्रमा के संचारवश भद्रा का निवास क्रमशः स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी लोक पर होता है। किंतु विभिन्न ग्रंथकारों में इस विषय में कतिपय मतभेद भी हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है- – अधिकाधिक विद्वानों के अनुसार क्रमशः मेष, मिथुन तथा वृश्चिक राशियों में चंद्रमा के रहने वाली भद्रा का वास स्वर्गलोकं में, कन्या, तुला, धनु तथा मकर के चंद्रमा में इसका वास पाताल (नाग) लोक में तथा कर्क, सिंह, कुंभ और मीन के चन्द्र समय में इसका वास भूलोक (पृथ्वी) में होता है। स्वर्ग में निवास करने वाली भद्रा ‘ऊध्र्वमुखी’, पाताल वासिनी ‘अधोमुखी’ तथा पृथ्वी वासिनी भद्रा ‘सम्मुख’ कहलाती है। कुंभ कर्कद्वये मृत्र्ये स्वर्गेज्ब्जेज्जात्रयेऽलिगे। स्त्री धनुर्जूकन क्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलम्।। मुहूत्र्त चिंतामणि।।

  • द्वितीय पक्ष के समर्थकों द्वारा मेष, वृष, कर्क तथा मकर के चंद्रमा में स्वर्गलोक, सिंह, वृश्चिक, कुंभ तथा मीन के चंद्रमा में पृथ्वी लोक और मिथुन, कन्या, तुला तथा धनु के चंद्रमा में भद्रा का वास पाताल लोक में बताया गया है। ‘‘मेष मकर वृष कर्कट स्वर्गे, कन्या मिथुन तुला धन नागे। कुंभ मीन अलिके सरिमृत्यौ विचरति भद्रा त्रिभुवन मध्ये।।’’ – तृतीय पक्षानुसार मेष, कर्क, तुला और मकर राशिगत चंद्र संचार में भद्रा स्वर्ग लोक, कन्या, धनु, कुंभ तथा मीन राशिगत चंद्र रहने पर पाताल और वृषभ, मिथुन, सिंह, तथा वृश्चिक राशिगत चंद्र संचार होने पर भद्रा पृथ्वी लोक में निवास करती है। ‘‘रसातलस्था तिमि-कार्मुकांगना-घट स्थिते राजनि भूमिगा भवेत्। द्विरेफ-गो-द्वंद-न खायुधानुगे, विष्टिर्दिवस्था ननु शे षराशिगे।।’’ भद्रा का वास ‘भूर्लोकस्था सदा त्याज्या स्वर्ग पातालगा शुभा’’ के अनुसार कृत्याकृत्य के उद्देश्य से स्वर्ग निवासिनी, पाताल निवासिनी भद्रा समस्त कार्यों में शुभदायी (प्रशस्त) तथा पृथ्वी वासिनी भद्रा समस्त कार्यों की नाशक और कष्टप्रद होती है।

  • भद्रा का उद्भव: भद्रा के उद्भव से संबंधित ‘श्रीपति’ का निम्न श्लोक ग्रंथों में उपलब्ध है। मूलक्र्षे शूलयोगे रवि दिन दशमी फाल्गुन कृष्णा याता विष्टिर्निशायां प्रभवति नियतं शंकर पहिचांगे।।’’ अर्थात फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि रविवार को मूल नक्षत्र, शूलयोग में रात्रि समय भद्रा का उद्भव भगवान शंकर के शरीर से हुआ। भद्रा की मुख दिशा: भद्रा का मुख चतुर्दशी में पूर्व, अष्टमी में अग्नि कोण, सप्तमी में दक्षिण, पूर्णिमा में नैर्ऋत्य, चतुर्थी में पश्चिम, दशमी में वायव्य, एकादशी में उत्तर तथा तृतीया में ईशान कोण की ओर रहता है। भद्राकाल में उसके मुख की तरफ वाली दिशा में यात्रा वर्जित है, मात्र पुच्छ वाली दिशा (विपरीत) में यात्रा फलप्रद तथा सिद्धि दायक बताई गई है। भद्रा का परिहार: स्वीकार्यता की दृष्टि से भद्रा के कुछ परिहार वाक्य (उपाय) विभिन्न मुहूर्त ग्रंथों में उपलब्ध हैं,
    ऋषि ‘भृगु’ का निम्न वाक्य भद्रा अनूठा परिहार (उपाय) प्रस्तुत करता है। ‘‘सोमे शुक्रे च कल्याणी शनौ चैव तु वृश्चिकी गुरु पुण्यवती ज्ञेया चान्यवारेषु भद्रका।।’’ अर्थात चंद्रवार तथा शुक्रवार की भद्रा कल्याणकारी, शनिवार तथा रविवार की वृश्चिकी तथा गुरुवार की भद्रा पुण्य प्रदान करने वाली होती है। इसके अतिरिक्त अन्य वारों में व्याप्त भद्रा अशुभ फल प्रदान करती हैं
    अवश्य कत्र्तव्यस्य तु शुभ कर्मणः कालांतरः-प्रतीक्षा मसहमानस्य एवमादि पहिार जहां भद्रा में कृत्याकृत्य: यद्यपि समस्त मुहूर्त ग्रंथों में एकमत से भद्राकाल में शुभ कार्यों का स्पष्ट वर्जन निर्धारित है तथापि इस काल में कृत्याकृत्य का निर्धारण मुख्यतः निम्न वाक्यों पर आधारित है- – वृहस्पति का कथन है कि भद्रा में वध, बंधन, विष, अग्नि, शस्त्र छेदन, शत्रु का उच्चाटन आदि निन्दित कार्य तथा घोड़ा, महिष एवं ऊंट आदि का दमन करना शुभदायक होता है- ‘‘वध-बंध विषागन्य स्त्रच्छेदनोच्चाटनादियत्। तुरंग महिषोष्ट्रा विकर्म विष्टया तु सिद्धयति।। राज दर्शन, भयप्रद घात तथा हठ, चिकित्सक के आगमन और शत्रु उच्चाटन सहित हाथी, मृग, ऊंट तथा धनादि के संग्रहादि जैसे कार्यों में भद्रा सदैव ग्रहण योग्य है- ‘‘युद्धे भूपति दर्शने भयप्रद धाते च पाते हठे वैद्यस्यागमने शत्रो समुच्चाटने।
    गज मृगोष्ट्रा श्वादिके संग्रहे स्त्री सेवायां भद्रा सदा गृह्यते – भृगु का मत भी इन्हीं के सदृश है।
    विवादे शत्रुहनने भयार्थे राजदर्शने। इक्षुदंडे तथा प्रोक्ता भद्रा श्रेष्ठा विधियते’’ के रूप में विवाद, शत्रु दमन, राज दर्शन तथा दंडादि देने जैसे कार्यों में भद्रा द्वारा आक्रांत काल शुभ माना गया है। – इसके अतिरिक्त सभी मुहूर्त ग्रंथों ने विवाह, जातक संस्कार, दैनिक कृत्यों के क्रियान्वयन तथा कार्यारंभ जैसे कार्यों में अन्य कुयोगों के समान ही भद्रा काल को सदा त्याज्य घोषित किया है- ‘‘वर्जयेद्वार वेलां च गण्डांतं जन्मभं तथा भद्रां क्रकचयोगं च तिथ्यंतं यमघंटकं दग्धातिथि च भांत च कुलिकं विर्वजयेत।।’’ खगोलीय दृष्टिकोण से भद्रा आकाश का एक निश्चित भाग (अंश) होता है जो पृथ्वी के भ्रमण तथा घूर्णनवश कभी पृथ्वी के नीचे अधः कपाल में, कभी ऊपर ऊध्र्व कपाल में और कभी के समानांतर स्थित रहता है। सामान्य धारणा यह है कि करण तिथि का आधा मान होता है।
    रक्षा बंधन प्रति वर्ष मनाया जाने वाला यह राष्ट्रीय त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को आता है। इस श्रावणी (उपाकर्म) का बहुत बड़ा महत्व है। जहां एक ओर बहनें अपने भाइयों की कलाई में राखियां बांधती हैं और भाई उनकी रक्षा का वचन देते हैं वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण अपने अपने यजमानों को और गुरु अपने शिष्यों को रक्षासूत्र बांधकर शुभाशीर्वाद देते हैं।

ब्राह्मण नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं और आध्यात्मिक एवं भौतिक तत्वों के ज्ञाता, मनीषी, ऋषि-मुनि, तपस्वी, साधु-संत उपाकर्म करके नव ज्ञान, नवीन अन्वेषण, अध्ययन की ओर अग्रसर होते हैं।

”श्रावणी (उपाकर्म) भद्रोपरि रक्षाबंधनं शुभम्।“ –

कौरवों और पांडवों के बीच जो महाभारत का युद्ध हुआ उस समय धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर भगवान श्री कृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा था, ”छायासूर्यसुतेदेवि विष्टिरिष्टार्थदायिनी। पूजितासी यथा-शक्त्या भद्रेभद्रप्रदा भवः“ अर्थात विष्टि रवि भार्या छाया से उत्पन्न शनिश्चर भगिनी है जो थोड़े से पूजन-अर्चन से संसार के प्राणियों का अनिष्ट दूर कर उनका भला करती है। यदि कोई भी व्यक्ति प्रातः समय उठकर भद्रा के द्वादश नामों का उच्चारण करे तो उसे बीमारी नहीं सताएगी। रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। ग्रह अपनी प्रतिकूलता छोड़कर अनुकूल हो जाते हैं।

विघ्न-बाधा शांत हो जाती है। युद्ध में, राजकुल में, द्यूत में सर्वत्र विजय मिलती है। भद्रा के बारह नाम निम्न हैं। – धन्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खर-आनना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुर-क्षयकरी – मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार भद्रा को मध्याह्न काल पश्चात शुभ माना गया है। – जो स्वर चले सोई डग दीजे, भरणी भद्रा एक न लीजे। – पूरब-गौधूली, पश्चिम-प्रात, उत्तर-दोपहर दक्षिण-रात। का करे भद्रा, का दिशा शूल, कह भड्डरी सब चकनाचूर।। – प्रविसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कौसल पुर राजा।।
रात्रि-दिन के भेद से भद्रा की संज्ञा ज्ञात कर भद्रा वाले दिन में यात्रारंभ/कार्यारंभ कर सकते हैं। – स्वर्ग और पाताल में वास करने वाली भद्रा का 67 प्रतिशत पूर्ण भद्राकाल में से शुभ है, इसमें कार्य कर लें। अर्थात् 11 ता० को श्रावणी पूर्णिमा श्रवण नक्षत्र सहित रक्षाबन्धन करे

LIC

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