रक्षाबन्धन महोत्सव***
प्राचीन काल से ही अपने देश के उत्सव एवं पर्व, सामाजिक, समरसता एवं सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ाने वाले रहे हैं. रक्षाबन्धन इसी परम्परा की एक सशक्त कड़ी है.
रक्षाबन्धन को श्रावणी-पर्व भी कहा जाता है. प्राचीन काल में श्रावणी-पर्व शिक्षा से सम्बन्धित पर्व माना जाता था. उस समय अपने देश में वर्षा-काल में यातायात के सुलभ साधन उपलब्ध न होने के कारण विद्या अध्ययन केंद्र (गुरुकुल) जो नगरों से दूर बाहर जंगलों में होते थे, एकान्तवास रहता था. शिक्षा संस्थान इन दिनों बन्द कर दिये जाते थे. ऐसे समय में आचार्यवृन्द श्रावणी-पूर्णिमा से स्वाध्याय-रत होकर अधिक ज्ञानोपर्जन हेतु एक वृहद यज्ञ के रूप में उपाकर्म करते जो श्रावणी से आरम्भ होकर मार्गशीर्ष-मास तक निरन्तर चलता था.
समय के साथ-साथ इस पर्व का रूप भी परिवर्तित होता गया. इस पर्व का आरंभ और विसर्जन एक ही दिन किया जाने लगा. स्कन्द पुराण के अनुसार श्रावणी-पूर्णिमा को प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में विद्वान लोग ब्राह्मणादि (श्रृति-स्मृतिज्ञान में निपुण विद्वान) सरोवर में स्नान कर नवीन यज्ञोपवीत धारण करते थे तथा पितृ, ऋषि एवं देवताओं का तर्पण करने के पश्चात् राजाओं एवं अन्य बन्धु-बान्धवों तथा यजमानों के हाथ में शुद्ध स्वर्णिम सूत्र बान्धते हुए शुभ कामनाएं करते थे.
वर्तमान में रक्षाबन्धन के त्योहार को आमतौर पर भाई-बहनों का पर्व मानते हैं लेकिन, अलग-अलग स्थानों एवं लोक परम्परा के अनुसार अलग-अलग रूप में रक्षाबंधन का पर्व मानते हैं. वैसे इस पर्व का संबंध रक्षा से है. जो भी आपकी रक्षा करने वाला है उसके प्रति आभार दर्शाने के लिए आप उसे रक्षासूत्र बांध सकते हैं.
राखी या रक्षाबंधन भाई और बहन के रिश्ते की पहचान माना जाता है. राखी का धागा बांध बहन अपने भाई से अपनी रक्षा का प्रण लेती है.
रक्षाबन्धन का ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व भी है. लक्ष्मीजी ने बांधी थी राजा बलि को राखी
राजा बलि ने यज्ञ संपन्न कर स्वर्ग पर अधिकार जमाने की कोशिश की थी. बलि की तपस्या से घबराए देवराज इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की. विष्णुजी वामन ब्राम्हण का रूप रखकर राजा बलि से भिक्षा अर्चन के लिए पहुंचे. गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी बलि अपने संकल्प को नहीं छोड़ा और तीन पग भूमि दान कर दी.
वामन भगवान ने तीन पग में आकाश-पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया. बलि भक्ति के बल पर विष्णुजी से हर समय अपने सामने रहने का वचन ले लिया। इससे लक्ष्मीजी चिंतित हो गईं. नारद के कहने पर लक्ष्मीजी बलि के पास गई और रक्षासूत्र बांधकर उसे अपना भाई बनाया और संकल्प में बलि से विष्णुजी को अपने साथ ले आईं. उसी समय से राखी बांधने का क्रम शुरु हुआ जो आज भी अनवरत जारी है.
रक्षासूत्र बांधकर देवासुर संग्राम में इंद्राणी ने दिलाई थी विजय
सबसे महत्वपूर्ण घटना देवासुर संग्राम की है. जिससे रक्षा-सूत्र अथवा रक्षाबन्धन के महत्व का ज्ञान होता है. सर्व विदित है कि देव-दानव युद्ध बारह वर्षों तक चलता रहा. देवताओं की पराजय प्रायः निश्चित प्रतीत हो रही थी.
देवराज इंद्र युद्ध भूमि से भागने की स्थिति में आ गये थे. यह समाचार उनकी पत्नी शची (इन्द्राणी) ने देवगुरु बृहस्पति को जा कर सुनाया और अपने पति इन्द्र की विजय का उपाय पूछा. गुरु बृहस्पति के सुझाव से इन्द्राणी ने रक्षा-व्रत का आयोजन कर अपने सतीत्व बल के आधार पर देवराज इंद्र के दाहिने हाथ पर शक्ति-सम्पन्न रक्षा-सूत्र बांधते हुए कहा
येन बद्धो बलिः राजा दानवेन्द्रो महाबलः
तेन त्वाम् अनुबध्नामि रक्षे माचल-माचलः
जिस (रेशमी सूत्र)ने महाशक्तिशाली असुर-राज बलि को भी बाँध दिया, उसी रक्षा-सूत्र से मैं आपको बाँधती हूँ, आप अपने धर्म पर सदा अचल रहें. इस प्रकार शची (इन्द्राणी) द्वारा प्रदत्त सतीत्व बल आधारित रक्षा-कवच के प्रभाव से देवराज इंद्र ने युद्ध में विजय पाई.
द्रौपती ने बांधी थी भगवान कृष्ण को राखी
राखी का एक कथानक महाभारत काल से भी प्रसिद्ध है. भगवान श्रीकृष्ण ने रक्षा सूत्र के विषय में युधिष्ठिर से कहा था कि रक्षाबंधन का त्यौहार अपनी सेना के साथ मनाओ इससे पाण्डवों एवं उनकी सेना की रक्षा होगी. श्रीकृष्ण ने यह भी कहा था कि रक्षा सूत्र में अद्भुत शक्ति होती है.
रक्त रोकने के लिए बांधा साड़ी का कपड़ा
शिशुपाल का वध करते समय कृष्ण की तर्जनी में चोट आ गई, तो द्रौपदी ने रक्त रोकने के लिए अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर बांध दी थी. यह भी श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था.भगवान ने चीरहरण के समय उनकी लाज बचाकर यह कर्ज चुकाया था। उसी समय से राखी बांधने का क्रम शुरु हुआ.
वास्तव में यह पर्व सामाजिक समता व समरसता का पर्व है. इसमें समाज के सभी स्त्री-पुरुष, वर्ग व भेदभाव के एक दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधते हुए संकल्प लेते हैं कि मैं अपनी शक्ति व बल के आधार पर आपकी (जिस को रक्षा-सूत्र बाँधा जाता है) रक्षा करुंगा या करुंगी.
प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना बल है. उदाहरणार्थ – किसी में बुद्धि बल है तो किसी में ज्ञान बल है, इसी प्रकार बाहुबल, धन-बल, तबोबल, सतीत्व बल आदि-आदि सब में अपने-अपने हैं. जिसमें जो बल या शक्ति है वह उसी के द्वारा सामने वाले की रक्षा करेगा.
हम भी इस दिन परमवन्दनीय भगवाध्वज को रक्षा-सूत्र बाँध कर संकल्प करते हैं कि इस ध्वज की रक्षा का भार हम पर है. जिस समाज, राष्ट्र वा संस्कृति का यह पवित्र ध्वज प्रतीक है हम उसकी रक्षा करेंगे. यह समाज का परस्परावलम्बी व अन्योन्याश्रित न्याय का पर्व है.
साभार :—अज्ञात